बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

जाकिर भाई को सुनते हुए

स्याही सा जमा आकाश तबले पर
चाँदी का चँद्रमा
जाने कौन वह अरूप
अपरूप जिसकी अंगुलियाँ
कौंधती हैं बिजली सी
द्रुत, चंचल, अजस्र तरंगों का रेला...
स्वरों के दुकूल पर
तम के पार
जाने कौन..
- सुमीता

कोई टिप्पणी नहीं: