रविवार, 3 नवंबर 2013

(अनागत-2) हन्यते हन्यमाने शरीरे...

मैं-
भड़भूँजे की हाड़ी-
दबिले जैसे यंत्र से
मुझमें से भुने हुए बीज
बाहर निकाले जा रहे हैं
जीवन की सभी संभावनाओं से मुक्त।

मैं-
रक्त माँस चेतनहीन-
तप्त बलुका राशि की
आंच बटोरती- संतप्त
एकाएक अपने कद से
बीसेक गुणा गहरे पानी में
ऊभ-डूभ होने लगी
असंतुलन ... भय ... रोमांच ...चिहुँक ...
न चेत
न अचेत
न जीवन
न मृत्यु
.....

चेतना के चित्रपट पर
कई चहरे आए अंतर्धान हुए
और अब बस तुम हो
कहाँ हो ?
कहाँ हो तुम ?
मेरी संपूर्ण शक्ति लगाकर
बढ़े हुए हाथ की पकड़ से परे
ओ मेरे
हर हाल, हर क्षण में मेरे
कहाँ हो ?
-मेरी पुकार भी तुम तक नहीं पहुँचती-
मेरी चेतना
तुम्हें अपने बिलकुल निकट महसूसती है
कि सबकुछ गड्ड-मड्ड हो जाता है
और मेरी आँखों के सामने ही तुम्हें
किसी शक्तिशाली द्रुतगतियुक्त अदृश्य यंत्र से
क्षणांश में वैसे ही गूँध दिया जाता है
जैसे पानी डाल-डाल कर आटा
या कुम्हार के चाक के लिए मिट्टी का लोंदा।

तेज दूधिया रोशनी के
कैसे प्रदेश में पहुँची हूँ मैं
कि चकाचौंध के सिवा कुछ भी नहीं सूझता ...
नीम बेहोशी में धीरे-धीरे उतरते
सुध-बुध खोने की स्थिति
संभालती हूँ खुद को
मुझपर सात बल्बों वाले प्रकाशपुंज
का आघात हो रहा है जिनकी कुल क्षमता
जाने कितने हजार वाट की होगी
अपनी चौड़ाई भर चौड़ी तख्त पर
निश्चेष्ट पड़ी मेरी देह की
यह कैसी स्वाभाविक (?) स्थिति है !?
जाने कितनी ही आवाजों के शोर में
घिरी हूँ मैं
एक दूसरे में घुलती-डूबती-टूटती आवाजों में
मेरी पहचान का एक भी स्वर नहीं है
मेरे आसपास तीन-चार-पाँच
न जाने कितने मनुष्य हैं
जो मुझे चारो और से पकड़
एक विशालकाय कैंची से वैसे ही फाड़ रहे हैं
जैसे कपड़े के बड़े से थान को।

मेरे सामने रंगीन
लाल, पीले, सुनहरे, बूटदार परदे खुलते जाते हैं
संपूर्ण ब्रह्मांड बस एक मंच हो जाता है
चौंधियाता उजाला व्याप्त है
पर्दे-दर-पर्दे खुलते जाते हैं
मैं एक-एक कर उन्हें पार करती जाती हूँ
अकेली, निर्भय, रोमांचित ...
जाने कितने पर्दे
सोचती कि
तुम भी होते तो कितना अच्छा होता !
कैसा लुभावना है सबकुछ
मैं चलती जाती हूँ प्रसन्नचित्त।

और फिर सबकुछ खत्म
पर्दे ... रोशनी ... प्रसन्नता ...
अब एक सामान्य-सा उजास है
घूमती दीवारों वाले एक कमरे में
बेजान सी पड़ी है मेरी देह
सिर में द्रुतगति से
चक्कर काट रहा है एक हवाई जहाज
घन्न ...घन्न ...
परेशान हूँ कि
थकान, पीड़ा, अवशता का बोझ लिए
मेरे अंग-अंग इतने शिथिल क्यों हैं
मैं नहीं पहचानती कि यह कौन है
जो जबर्दस्ती मेरी मुट्ठियाँ बँधवा रहा है
और मैं झटक दे रही हूँ
इस मुट्ठी में यह रबड़ जैसा
लिजलिजा-सा क्या है
तुम कहाँ हो
इस ढीठ को हटाते क्यों नहीं ?
.....

चले गए, सब चले गए।
नितांत अकेली बच गई
मेरी यह देह प्लास्टिक की कैसे हो गई ?
अपने ही एक हाथ से दूसरे का स्पर्श -
यह क्या मेरा ही हाथ है !?
मेरे ही अंग-अंग इतने अजनबी अनजान कैसे
इतनी असह्य पीड़ा और इतना ठंडापन
आः मेरी शिराओं का रक्त कहाँ लुप्त हो गया ...

जीवन की सभी संभावनाओं से मुक्त
भुने हुए बीज बाहर निकाले जा चुके
भड़भूँजे की हाड़ी आग पर से उतार दी गई है।

सुमीता
(09/07/99)

शनिवार, 2 नवंबर 2013

अनागत

वतू* लाँघकर मेरे अनजाने
मुझमें क्यों पहुंचे वत्सक मेरे ?!

काँधों तक झुके हुए
किशोर आम्रतरु तले
मौसम के पहले बौर की बेसुधी बीच
मेरे अस्तित्व को जाने किस लिपि में बाँचते
उद्दाम उत्कंठा में
उमंगों की सरसराहट सा
मुझमें उतर आए तुम -
किस देवता के शाप स्वरूप ?
और अवहेलना के मेरे स्वरों से मुझे सिहराता
चला गया दिगंत ...

जीवन !
क्या अपराध तुम्हारा जो
तुम्हें इस दुनिया में लाऊँ ?!
हमने कुछ नहीं रखा तुम्हारे लिए
न हवा, न पानी, न दूध, न अन्न।
हमने नहीं छोड़ी यह दुनिया काबिल तुम्हारे।
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथ-पाँव किस तरह
पार करेंगें जलप्रलय
जब पृथ्वी ही डूब रही हो पूरी की पूरी।
तुम आओगे
और गलबहियां डाले स्वागत करेंगी
कुछ असाध्य बीमारियाँ
- तुमपर झुके आधेक दर्जन डॉक्टर्स
- इंटेंसिव केयर यूनिट
जहाँ वर्जित होगा मेरा भी प्रवेश।

अपने देवता के शाप
और मेरी अवहेलना
तुमने तोड़ दी डोर।
तुम भागे जा रहे थे हाथ छुड़ा
भाग रही थी मैं तुम्हारे पीछे
अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा
मेरे कदम वैसे ही निष्प्राण हो रहे थे
जैसे बचपन के दुःस्वप्नों में पीछा करते हुए
भयानक राक्षस से भागते हुए होता था
आह! कैसी अवश शिथिलता !
बूँद-बूँद निचुड़ता ठंडा प्रवाह
ज्यों मेरी नाभि से आम्रबौरों की
मादक गमक का कोष ही फूट पड़ा हो
-मेरे पूरे अस्तित्व समेत मुझे खंगालता।
अपनी समग्र इंद्रियों से तुम्हारा जाना
महसूस रही थी मैं।

गर्भस्थ मेरे !
चले गए तुम।
मैं नहीं थी काबिल तुम्हारे।
शाप कट गया तुम्हारा।

मानी मेरे !
सुनो, मान मत रखना।
क्षमा करना मुझे
पूरा हो प्रायश्चित मेरा
तब जरूर आना तुम
जब मैं रच लूंगी
तुम्हारे काबिल हवा, पानी, दूध, अन्न
और पृथ्वी भी।

(*वतू - स्वर्ग की एक नदी)

--- सुमीता 

दिल का मौसम सर्द बहुत है

दिल का मौसम सर्द बहुत है, बाकी तो सब अच्छा है
एक तुम्हारी कमी है यारा, बाकी तो सब अच्छा है

देहरी, आँगन, तुलसी चौरे, धरा दीप है माटी का
मेरी साँसें तेरा सुमिरन, बाकी तो सब कच्चा है

जंगल-सहरा-पर्वत-दर्रे, मारी फिरी मैं, हुई हलकान
एक भरम तू, एक छलावा, बाकी तो रब सच्चा है