मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

पंडित विश्व मोहन भट्ट को सुनते हुए

फौलादी तारों पर खुरच कर
मोहिनी वाणी में तुम
लिखते/ रचते हो जो
उसे सुनना
आकाश होना है
स्वरों की गंगोत्री में पलकें धो
आत्मा की स्वर्णिम परतें खोलना है
भीतर के शून्य का
बाहर के शून्य में मिलना
अस्तित्व का अनंत में घुलना है.
-- सुमीता

jalasaaghar: आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी ...

jalasaaghar: आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी ...

आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी ...

आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी ...


कलाबाज कलावंत !
तने आलाप पर अनगिन भावमुद्राओं में
थिरकती तुम्हारी आवाज़ का अचम्भा
थोड़ी सी ढील देकर स्वर तार का
अचके खींचना
खींच लेना ध्यान.

केन्द्रस्थ सूर्य के गिर्द
जैसे थिरकते हैं ग्रह-नक्षत्र...
अपनी गूंज की धूरी पर
नाजुक कमनीयता के साथ
जैसे घूमता हो कोई रंगीन लट्टू...
या सौ सौ रंग रंगी तुम्हारी तिलंगी
जटिल उलझी अपने ही रास्ते बुनती
वलयाकार सम्मोहक
गतियाँ अनूठी
कैसी कैसी पेंचे
कितना नट कौशल
परिशुद्ध सधाव का सधा संतुलन !
चाहे जितना भी चक्कर काटते
कहीं भी घूम आते तुम सम पर ही
ठहरते हो कैसे ?
विकृत विवादी भी सुन्दर होते हैं इतने ?!
तुम्हारी लटाई में कितने आवर्तन हैं गायक ?

"बाकटी उस्ताद !"
कटता है अहम्
गलता है ह्रदय
अप्रतिम सुख का अन्तराल...

अस्तित्व : हवा के पंखों पर उड़ती
सेमल की रुई
निरभ्र गगनमंडल में ठहरी चौदस  की चांदनी
आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी...

-- सुमीता

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

jalasaaghar

jalasaaghar: saagar
सागर 
विनाश के मुहाने पर
बेचैनियों और प्रार्थना की मुद्रा में
खड़ी सभ्यता को
अग्निप्रलय से बचा लेने
तुम भी आओ हमारे साथ...
जैसे कभी किसी की पुकार से पृथ्वी पर
उतर आई थी गंगा
सागर!
हम पुकारते है तुम्हें.
- सुमीता
(लम्बी कविता "सागर" का अंश)

बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

जाकिर भाई को सुनते हुए

स्याही सा जमा आकाश तबले पर
चाँदी का चँद्रमा
जाने कौन वह अरूप
अपरूप जिसकी अंगुलियाँ
कौंधती हैं बिजली सी
द्रुत, चंचल, अजस्र तरंगों का रेला...
स्वरों के दुकूल पर
तम के पार
जाने कौन..
- सुमीता

jalasaaghar: फुर्सत का एक टुकड़ा

jalasaaghar: फुर्सत का एक टुकड़ा

फुर्सत का एक टुकड़ा



आज जबकि
धूप और चमकीली हो गई है
और तनिक स्निग्ध
(अपनी तीखेपन के विरूद्ध)
कहाँ से भर लाई है हवा
प्रशांत सुखद रेशमी अहसास ?!
तुम्हारे गीतों के स्वर तैर रहे हैं मेरे आसपास
अवश्य ही तुमने मुझे याद किया है.

जबकि निबटाने हैं मुझे
कितने ही काम
रोजमर्रा के जरूरी और गैरजरूरी सभी
झेलना है शोर और सन्नाटे के संत्रासों को
अपने ही दर्द को देनी है आंच
हवा अपनी संवेदनाओं को
होना है अनुभव प्रौढ़
सीखनी है दुनियादारी
ठीक ठीक पहचानकर खड़ा करना है
अपना कद !
आदमकद !!

ऐसे में उपहार की पोटली सा अचानक
कहाँ से हाथ आ लगा
फुर्सत का यह टुकड़ा
दरवाजे पर दस्तक देने
आ ही पहुँचा है शिशिर
मुंडेर पर फिर से खिल गए हैं
वे सफ़ेद फूल जिनका
नहीं जानती नाम

मेरी खिडकियों पर तिरा उज्जवल आकाश
टंग गया है भव्य कलात्मक परदे सा
सुख स्वप्न में गोते लगाने को
आँखें मूँद ली है मैंने
सुरक्षित है मेरे पास
सपनों भर नींद.

-सुमीता

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

jalasaaghar: स्त्री-३

jalasaaghar

स्त्री-३

उतर गया काजल
बिंदी, चूड़ी, करधन और पायल
परी, अप्सरा, रूपसी और
हृदयदेश की साम्राज्ञी अब वह नहीं रही
केवल सहयोगिनी भी नहीं
माता, पत्नी, मित्र और
रमनेशु रम्भा
की सभी भूमिकाएं प्रवीणता से निबाही
कार्येषु मंत्री पद पर सदियों विराजी.

सचेत हो चुकी अब.

गुत्थम गुत्था भीड़ में
आठ तह मोड़कर छोटा सा कागज
लिख लेती कविता की कुछ पंतियाँ
चूल्हे पर दाल चढ़ा
रंगती कैनवास
आते जाते रास्ते में
जाँच लेती होमवर्क की कॉपियां
पीठ पर बच्चा बांध
कमा लेती रोजी
लड़ लेती युद्ध
तब भी मनुष्य कितनी प्रतिशत  ?
बेहिसाब श्रम की चुटकी भर कीमत?!

मन मस्तिष्क के दसों दरवाजे खोल
भांप रही है दुनिया का मिजाज
हवा का रुख...

अब नहीं भरमेगी
भीड़ से या अकेले होने से
अब डर नहीं उसे
अपने रास्ते तलाशेगी
 अपनी मंजिल पायेगी.

सुमीता