बुधवार, 13 अक्तूबर 2010

फुर्सत का एक टुकड़ा



आज जबकि
धूप और चमकीली हो गई है
और तनिक स्निग्ध
(अपनी तीखेपन के विरूद्ध)
कहाँ से भर लाई है हवा
प्रशांत सुखद रेशमी अहसास ?!
तुम्हारे गीतों के स्वर तैर रहे हैं मेरे आसपास
अवश्य ही तुमने मुझे याद किया है.

जबकि निबटाने हैं मुझे
कितने ही काम
रोजमर्रा के जरूरी और गैरजरूरी सभी
झेलना है शोर और सन्नाटे के संत्रासों को
अपने ही दर्द को देनी है आंच
हवा अपनी संवेदनाओं को
होना है अनुभव प्रौढ़
सीखनी है दुनियादारी
ठीक ठीक पहचानकर खड़ा करना है
अपना कद !
आदमकद !!

ऐसे में उपहार की पोटली सा अचानक
कहाँ से हाथ आ लगा
फुर्सत का यह टुकड़ा
दरवाजे पर दस्तक देने
आ ही पहुँचा है शिशिर
मुंडेर पर फिर से खिल गए हैं
वे सफ़ेद फूल जिनका
नहीं जानती नाम

मेरी खिडकियों पर तिरा उज्जवल आकाश
टंग गया है भव्य कलात्मक परदे सा
सुख स्वप्न में गोते लगाने को
आँखें मूँद ली है मैंने
सुरक्षित है मेरे पास
सपनों भर नींद.

-सुमीता

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