शनिवार, 2 नवंबर 2013

अनागत

वतू* लाँघकर मेरे अनजाने
मुझमें क्यों पहुंचे वत्सक मेरे ?!

काँधों तक झुके हुए
किशोर आम्रतरु तले
मौसम के पहले बौर की बेसुधी बीच
मेरे अस्तित्व को जाने किस लिपि में बाँचते
उद्दाम उत्कंठा में
उमंगों की सरसराहट सा
मुझमें उतर आए तुम -
किस देवता के शाप स्वरूप ?
और अवहेलना के मेरे स्वरों से मुझे सिहराता
चला गया दिगंत ...

जीवन !
क्या अपराध तुम्हारा जो
तुम्हें इस दुनिया में लाऊँ ?!
हमने कुछ नहीं रखा तुम्हारे लिए
न हवा, न पानी, न दूध, न अन्न।
हमने नहीं छोड़ी यह दुनिया काबिल तुम्हारे।
तुम्हारे नन्हें-नन्हें हाथ-पाँव किस तरह
पार करेंगें जलप्रलय
जब पृथ्वी ही डूब रही हो पूरी की पूरी।
तुम आओगे
और गलबहियां डाले स्वागत करेंगी
कुछ असाध्य बीमारियाँ
- तुमपर झुके आधेक दर्जन डॉक्टर्स
- इंटेंसिव केयर यूनिट
जहाँ वर्जित होगा मेरा भी प्रवेश।

अपने देवता के शाप
और मेरी अवहेलना
तुमने तोड़ दी डोर।
तुम भागे जा रहे थे हाथ छुड़ा
भाग रही थी मैं तुम्हारे पीछे
अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगा
मेरे कदम वैसे ही निष्प्राण हो रहे थे
जैसे बचपन के दुःस्वप्नों में पीछा करते हुए
भयानक राक्षस से भागते हुए होता था
आह! कैसी अवश शिथिलता !
बूँद-बूँद निचुड़ता ठंडा प्रवाह
ज्यों मेरी नाभि से आम्रबौरों की
मादक गमक का कोष ही फूट पड़ा हो
-मेरे पूरे अस्तित्व समेत मुझे खंगालता।
अपनी समग्र इंद्रियों से तुम्हारा जाना
महसूस रही थी मैं।

गर्भस्थ मेरे !
चले गए तुम।
मैं नहीं थी काबिल तुम्हारे।
शाप कट गया तुम्हारा।

मानी मेरे !
सुनो, मान मत रखना।
क्षमा करना मुझे
पूरा हो प्रायश्चित मेरा
तब जरूर आना तुम
जब मैं रच लूंगी
तुम्हारे काबिल हवा, पानी, दूध, अन्न
और पृथ्वी भी।

(*वतू - स्वर्ग की एक नदी)

--- सुमीता 

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