मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

मित्रधन


   मित्रधन

जो पाया, जो खोया
सहेजा, संजोया
उनमें
जो कुछ मोल मिला
सब माटी का ठीकरा
मित्रधन बस
अनमोल ठहरा.

बंधु मेरे ! हमारी पहचान के बल
लम्बे वर्षों के पार से
दी जो दस्तक
पहचान ही लेगी तुम्हारी चेतना
अपने पुराने गाँव/शहर की
मिट्टी की सोंधी खुशबू ,
हवा और पानी के उसी ताज़गी भरे
स्वाद की तरह
जिसकी हम निर्मिति हैं.

-- सुमीता  


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