आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी ...
कलाबाज कलावंत !
तने आलाप पर अनगिन भावमुद्राओं में
थिरकती तुम्हारी आवाज़ का अचम्भा
थोड़ी सी ढील देकर स्वर तार का
अचके खींचना
खींच लेना ध्यान.
केन्द्रस्थ सूर्य के गिर्द 
जैसे थिरकते हैं ग्रह-नक्षत्र... 
अपनी गूंज की धूरी पर 
नाजुक कमनीयता के साथ 
जैसे घूमता हो कोई रंगीन लट्टू... 
या सौ सौ रंग रंगी तुम्हारी तिलंगी
जटिल उलझी अपने ही रास्ते बुनती
वलयाकार सम्मोहक 
गतियाँ अनूठी
कैसी कैसी पेंचे
कितना नट कौशल
परिशुद्ध सधाव का सधा संतुलन !
चाहे जितना भी चक्कर काटते
कहीं भी घूम आते तुम सम पर ही
ठहरते हो कैसे ?
विकृत विवादी भी सुन्दर होते हैं इतने ?!
तुम्हारी लटाई में कितने आवर्तन हैं गायक ?
"बाकटी उस्ताद !"
कटता है अहम्
गलता है ह्रदय
अप्रतिम सुख का अन्तराल...
अस्तित्व : हवा के पंखों पर उड़ती
सेमल की रुई
निरभ्र गगनमंडल में ठहरी चौदस  की चांदनी
आवाज़ हो रही है झीनी-झीनी...
-- सुमीता
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
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