jalasaaghar: महापंडित राहुल संकृत्यायन से लोला का अनुत्तरित प्रश्न
तुमसे हजारों मील दूर यहाँ
मैं तुम्हारी महानता और पांडित्य की कीमत चुका रही हूँ
तुम्हारे हवन कुंड में समिधा सी सुलगती
प्राणों की आँच में
घोंटकर अपनी विद्वता जब तुम
स्पंदित शब्दों से निर्जीव पन्नों पर
जीवन का महाकाव्य रच रहे हो: सूक्तियाँ, ऋचाएँ और दर्शन
मैं ब्रेड के एकमात्र बचे स्लाइस के आठ टुकड़े करती
तुम्हारी कलम से झरने वाले
अक्षरों सी झर-झर बिखर रही हूँ
मेरी गोद में भूख से बिलखते मेरे
दूधमुहे बच्चे की
टुकड़े जितने दिनों की क्षुधा तृप्ति के उत्तर में
मेरे हिस्से आई टुकड़ों से झरे चूर्ण का
(इतने दिनों तक का)
आहार मेरे शरीर में
उसका आहार निर्मित कर नहीं पाता
और युद्ध की नींव पर क्रांति की लपट में
सिंक नहीं पाती हैं रोटियां
इसीलिए इतिहास में दर्ज
दुर्घटना मात्र हो जाती रही हैं क्रांतियाँ
महापंडित?! - नहीं तुम
मानवीय संवेदन के क्रयी-विक्रयी
तुम्हारी व्यापार कुशल वाक् चातुरी के लुभावने
शब्द्फूलों की रंगीन मायावनी सुगंधि से ठगी गयी
मै अपनी नाबालिग कोख में तुम्हें धारे
धरती आकाश होती रही
,
तुम मेरे प्राणों की पूरी ऊर्जा और उत्साह
अपने लहू में तरंगों सा समेट
पवन सा उड़ गए और किसी ठौर.
ये तरंगें एक और कालजयी कृति रचावएंगी प्रशंसा पुरस्कार बटोरते चल दोगे फिर तुम
अनुभूतियों की नई किसी देहरी पर
एक और मरुथल हो जायेगा हरियाली का कोई सागर
तुम्हारी महानता के अद्वितीय एहसान के बोझ सम्हालता.
धरती के सौन्दर्य में श्री, समृद्धि और
ज्ञान का आगार जोड़ने का
दंभ भरने वाले
एक व्यक्ति का टूटना
एक पृथ्वी-आकाश का बिखरना होता है
उसे सर्जक तुम्हारा
क्या सिरज सकता है दुबारा?
अब जबकि
तुम्हारे सभी गुंजलक
मेरी आँखों में पर्त-पर्त खुल गए हैं
मैं निर्द्वंद्व निर्बंध अपने डैने तौल रही हूँ :
खोज लूंगी अपना खोया आकाश.
तुम ढूंढोगे मुझे
सीता की पीड़ा में, राधा की व्रीड़ा में
जेना(स्टीन) के आँगन में, मीरा के गायन में
मोना(लिसा) की मुस्कान, मारीना के संघर्षों में
लक्ष्मी के विद्रोह में, जौन (ऑफ़ आर्क) की मृत्यु में
क्यूरी के विज्ञानं में,सीमोन के विश्लेषण में
टेरेसा की करुणामें, अरुंधती के इश्वर में
तसलीमा के फतवों और मेधा के घट्ठों में
पत्थर तोड़ती औरत की फूलती साँसों से
मिस यूनिवर्स के ताज तक लाखों आँखों में
तुम मुझे ढूंढोगे
न्योछावर करने कुछ शब्द
जो मुझतक पहुँचने से पहले ही बिला जायेंगे
जैसे तुम्हारी कृतियाँ पुस्तकों के ढेर में ...
पर ढूँढ नहीं पाओगे...
महापंडित !
तब तुम क्या करोगे
जब मै-मरियम
अपने बच्चे को
यीशु बना जाऊँगी
जिसमें तुम्हारा कोई अता-पता-ठिकाना नहीं होगा?
---सुमीता
[अपने रूस प्रवास के दौरान महापंडित राहुल संकृत्यायन ने सत्रह वर्षीय लोला को पत्नी बनाया था. यह समय
रूस में राजनीतिक उथल-पुथल का था. राजनीतिक व अन्य कई कारणों से महापंडित राहुल गर्भवती लोला को
अकेली छोड़कर वापस आ गए और दुबारा कभी मिलने न जा सके. राजनीतिक क्रांति की वीभत्स ज्वर भाटों
की विषम परिस्थितिओं में अपने अबोध शिशु के साथ भूख और आभाव के संत्रास सहती लोला की पीड़ा ही
इस कविता की प्रेरणा है.]
तुमसे हजारों मील दूर यहाँ
मैं तुम्हारी महानता और पांडित्य की कीमत चुका रही हूँ
तुम्हारे हवन कुंड में समिधा सी सुलगती
प्राणों की आँच में
घोंटकर अपनी विद्वता जब तुम
स्पंदित शब्दों से निर्जीव पन्नों पर
जीवन का महाकाव्य रच रहे हो: सूक्तियाँ, ऋचाएँ और दर्शन
मैं ब्रेड के एकमात्र बचे स्लाइस के आठ टुकड़े करती
तुम्हारी कलम से झरने वाले
अक्षरों सी झर-झर बिखर रही हूँ
मेरी गोद में भूख से बिलखते मेरे
दूधमुहे बच्चे की
टुकड़े जितने दिनों की क्षुधा तृप्ति के उत्तर में
मेरे हिस्से आई टुकड़ों से झरे चूर्ण का
(इतने दिनों तक का)
आहार मेरे शरीर में
उसका आहार निर्मित कर नहीं पाता
और युद्ध की नींव पर क्रांति की लपट में
सिंक नहीं पाती हैं रोटियां
इसीलिए इतिहास में दर्ज
दुर्घटना मात्र हो जाती रही हैं क्रांतियाँ
महापंडित?! - नहीं तुम
मानवीय संवेदन के क्रयी-विक्रयी
तुम्हारी व्यापार कुशल वाक् चातुरी के लुभावने
शब्द्फूलों की रंगीन मायावनी सुगंधि से ठगी गयी
मै अपनी नाबालिग कोख में तुम्हें धारे
धरती आकाश होती रही
,
तुम मेरे प्राणों की पूरी ऊर्जा और उत्साह
अपने लहू में तरंगों सा समेट
पवन सा उड़ गए और किसी ठौर.
ये तरंगें एक और कालजयी कृति रचावएंगी प्रशंसा पुरस्कार बटोरते चल दोगे फिर तुम
अनुभूतियों की नई किसी देहरी पर
एक और मरुथल हो जायेगा हरियाली का कोई सागर
तुम्हारी महानता के अद्वितीय एहसान के बोझ सम्हालता.
धरती के सौन्दर्य में श्री, समृद्धि और
ज्ञान का आगार जोड़ने का
दंभ भरने वाले
एक व्यक्ति का टूटना
एक पृथ्वी-आकाश का बिखरना होता है
उसे सर्जक तुम्हारा
क्या सिरज सकता है दुबारा?
अब जबकि
तुम्हारे सभी गुंजलक
मेरी आँखों में पर्त-पर्त खुल गए हैं
मैं निर्द्वंद्व निर्बंध अपने डैने तौल रही हूँ :
खोज लूंगी अपना खोया आकाश.
तुम ढूंढोगे मुझे
सीता की पीड़ा में, राधा की व्रीड़ा में
जेना(स्टीन) के आँगन में, मीरा के गायन में
मोना(लिसा) की मुस्कान, मारीना के संघर्षों में
लक्ष्मी के विद्रोह में, जौन (ऑफ़ आर्क) की मृत्यु में
क्यूरी के विज्ञानं में,सीमोन के विश्लेषण में
टेरेसा की करुणामें, अरुंधती के इश्वर में
तसलीमा के फतवों और मेधा के घट्ठों में
पत्थर तोड़ती औरत की फूलती साँसों से
मिस यूनिवर्स के ताज तक लाखों आँखों में
तुम मुझे ढूंढोगे
न्योछावर करने कुछ शब्द
जो मुझतक पहुँचने से पहले ही बिला जायेंगे
जैसे तुम्हारी कृतियाँ पुस्तकों के ढेर में ...
पर ढूँढ नहीं पाओगे...
महापंडित !
तब तुम क्या करोगे
जब मै-मरियम
अपने बच्चे को
यीशु बना जाऊँगी
जिसमें तुम्हारा कोई अता-पता-ठिकाना नहीं होगा?
---सुमीता
[अपने रूस प्रवास के दौरान महापंडित राहुल संकृत्यायन ने सत्रह वर्षीय लोला को पत्नी बनाया था. यह समय
रूस में राजनीतिक उथल-पुथल का था. राजनीतिक व अन्य कई कारणों से महापंडित राहुल गर्भवती लोला को
अकेली छोड़कर वापस आ गए और दुबारा कभी मिलने न जा सके. राजनीतिक क्रांति की वीभत्स ज्वर भाटों
की विषम परिस्थितिओं में अपने अबोध शिशु के साथ भूख और आभाव के संत्रास सहती लोला की पीड़ा ही
इस कविता की प्रेरणा है.]
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