जैसे भोथरा
लोहा भी
आघात सहते-सहते
हो जाता है
धारदार
ठीक वैसे ही
मेरी चेतना का
धातु भी पिघलकर,
मंज-मंज कर
बन गया है आईना
प्रशांत जल
की सतह-सा।
मेरी देह की
घुप्प कब्र में उतरने से पहले
तुम साक्षात्
देख सकते हो खुद को
वैसे खतरे तमाम
हैं इसमें
(इसलिए तुम
ऐसा कोई उपक्रम करते भी नहीं):
तुम्हारे अहम्
को तुष्ट करने वाली कोई भी झलकी
नहीं दिखेगी
इसमें
उलटे सत्य की
कड़वाहट
एक तीक्ष्ण
तिक्तता से भर सकती है तुम्हें
और रोषभरी एक
नाउम्मीद झल्लाहट में
तुम सगुन-निर्गुण
की बेहिसाब व्याख्याओं
और मेरे अस्तित्व
की धज्जियाँ उड़ाने में
ऐसी तन्मयता
से उलझ जाओगे कि
संसार चकित-विस्मित
हो झूमा करेगा
तुम्हारे ज्ञान-कैशल
और वाक्-चातुरी की प्रतिभा के हिंडोले में,
या तुम प्रेम-प्रयोग
के नाम पर
प्रेम-याचना
में भटकोगे रंगोली सजी
लुभावनी देहरी-देहरी-
मुझपर अकारण
दोष मढ़ते हुए।
असंभव तुम्हारा
रुकना!
यह जानते हुए
भी कि
घुप्प अंधियारे
का रंग
एक ही होता
है हमेशा और
मन का अँधियारा
देह के अँधियारे से भी
होता है गहनतर
...
हृदय में एक
कणी सी उतर आने वाली
रोशनी की राह
नहीं खुलती
वहाँ।
अपने मासूम
दुराग्रहों की लगातार
व्यर्थ चाबुक
फटकारते भीषण थके हुए-
तुम्हें विश्राम
चाहिए।
सच की छेनी
से छांटे-तराशे जाने की अकुलाहट
पैदा हो जाए
तब आ जाना मुक्ति का स्वाद लेने
उड़ती सेमल की
रुइयों से भी हल्की मखमली
प्रकृति की
कोमलतम गोद में तुम्हारा स्वागत होगा पुरुष!
अन्यथा
ऐ मेरी निर्मिती!
जन्मों-जन्मों
का तुम्हारा बेचैन भटकाव
मुझे नहीं होने
देगा मुक्त
जबकि मुझे अपनी
देह की कब्र के परे
जाने के रास्ते
का पता मिल गया है।
--सुमीता
27/10/13